शिव पुराण की कहानी hindi kahaniya moral stories
शिव पुराण की कहानी hindi kahaniya moral stories
शिव पुराण की कहानी hindi kahaniya moral stories नारद जी द्वारा शिव गणों को श्राप अध्याय तीसरा ब्रह्माजी द्वारा शिवजी के सगुण रूप की प्रशंसा अध्याय चौथा नारद जी ने विष्णु जी को श्राप क्यों दिया ? शिव पुराण में वर्णित किया गया है अभी देखें यहां श्री शिव महापुराण शिवपुराण की संपूर्ण खंड पढ़ने के लिए विजिट करें hindi kahaniya moral stories Hindi Kahani
शिव पुराण की कहानी hindi kahaniya moral stories
नारद जी द्वारा शिव गणों को श्राप
- शिवगणों की बात सुनकर नारदजी वहाँ से उठकर एक पानी से भरे तालाब के पास जा पहुँचे । वहाँ जल के भीतर जब उन्होंने अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखा तो उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ । अपने उस विकृत रूप को देखकर उन्हें अत्यन्त क्रोध हो आया और उसी क्रोध में उन्होंने उन दोनों शिवगणों को यह शाप दिया “ अरे मूखों तुमने हमारी बहुत अप्रतिष्ठा की है , अतः तुम दोनों भी छली तथा पापी हो जाओ । तुम अपने किये का फल पाओ कि जिससे फिर ऐसा नीच - कर्म करने की तुम्हें हिम्मत न पड़े । नारदजी के मुख से इस शाप को सुनकर वे दोनों गण अत्यन्त चिन्तातुर हो वहाँ से लौट कर अपने लोक में जा पहुँचे और शिवजी की स्तुति करने लगे । इधर नारद जी भी कुछ देर बाद अपनी यथार्थ दशा में आ गये । परन्तु उनके मन में यह विचार निरंतर चक्कर काटता रहा कि विष्णु द्वारा छल किये जाने के कारण ही मेरा यह अपमान हुआ है अतः या तो मैं । विष्णु को शाप दूंगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूंगा ।
- हे ऋषियो ! यह निश्चय कर नारदजी भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम को चल दिए । उस समय नारद जी की इच्छा जानकर विष्णु भगवान उन्हें मार्ग में ही मिल गये । विष्णु भगवान के साथ वह कन्या भी थी , जिसको उन्होंने स्वयम्बर । में प्राप्त किया था । अस्तु , विष्णु भगवान् ने नारद को प्रणाम करके हास्यपूर्ण । शब्द में कहा - “ हे नारदजी ! आप इस प्रकार चिन्तित होकर कहाँ जा रहे हैं ? विष्णु के ऐसे वचन सुनकर नारदजी अत्यन्त क्रोधित हुए , उसी क्रोधावस्था में नारदजी के मुँह से यह शब्द निकले – “ हे विष्णु ! तुम इस समय हमको अच्छे मिले ! तुम बड़े छली हो । तुम्हारा वह छल जो तुमने दिति के पुत्रों के साथ मोहिनीरूप धारण करके , अमृत को बाँटने में किया था , प्रसिद्ध है ही । तुम्हीं ने छल से जलन्धर की स्त्री से उसका पातिव्रतधर्म छुड़ाया । सदाशिव ने भी तुमको वरदान देकर सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी बनाकर उचित नहीं किया है । अब सदाशिव भी तुमको ऐसा स्वाधीन एवं सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी बनाकर अपने मन में चिन्तित हैं । अब हम सदाशिव की आज्ञानुसार ही , तुमको तुम्हारे कर्मों का फल देते हैं , जिससे कि तुम भविष्य में फिर ऐसा कोई काम न करो । यद्यपि तुमको सदाशिव ने वरदान दिया है , तो भी हम तुमको केवल शिक्षा देने के लिए ही शाप देते हैं ।
- नारदजी ने इतना कहकर , विष्णु को यह शाप दिया - “ हे विष्णु ! तमने जिनके समान हमारा मुख कर दिया था , वही बानर तुम्हारी सहायता करेंगे । जिस स्त्री के लिए तुमने हमारा अपमान किया , तुम भी उसी स्त्री के वियोग से अत्यन्त दुखी होकर वन - वन में घूमते फिरोगे । विष्णुजी ने यह सुनकर नारदजी के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया ; परन्तु नारदजी ने उन्हें क्षमा नहीं किया । भगवान सदाशिव ने यह देखकर नारदजी के मन से अपनी माया हटा ली । उस समय न तो नारदजी की ही वह दशा रही और न वहाँ कोई स्त्रीही दिखाई दी । तब नारदजी ने आश्चर्यचकित होकर , खेद प्रकट करते हुए कहा कहा नहीं जा सकता कि यह सब वृत्तान्त सत्य है या मैंने इसे स्वप्न में देखा है । " फिर “ आपकी माया अपरम्पार है , जिससे हम जैसे बुद्धिमान भी अमित हो जाते हैं " कहते हुए नारदजी विष्णुजी के चरणों पर गिरते हुए बोले - हे नारायण ! आप मेरे शाप का खण्डन कर दीजिये तथा जो कठोर शब्द मैंने कहे हैं , उस महापाप के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए ।
- यह सुनकर विष्णुजी ने कहा - " हे नारद ! तुमने सदाशिव के वचनों की जो अवज्ञा की है , यह सब उसी का फल मिला है । अब भी उचित है कि तुम चैतन्य होकर सदाशिव को महान समझो । वे ही तीन स्वरूप धारण करके तीनों कार्योद्वारा सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन करते हैं । वे स्वयं प्रलय के स्वामी हैं । मैं केवल सदाशिव के तप के कारण ही सबसे बड़ा गिना जाता हूँ । हे नारद ! तुम उन्ही सदाशिव की तपस्या करो ; क्योंकि उनकी आराधना और तपस्या के बिना कोई भी परमपद प्राप्त नहीं कर सकता है । अब तुम्हें उचित है कि सब कुछ त्याग कर , सदाशिव का भजन करो एवं उनके शतनामों का जाप करो । वे ही मेरी शक्ति हैं । तुम हृदय में शिवजी के चरणों का ध्यान रख कर , देशाटन करो जिससे तम्हें दुःख न होगा । तुम्हारे लिए यही उचित है कि समस्त भूमण्डल पर भगवान् सदाशिव की महिमा देखते हुए , काशी जी को सिधारो । उसे रुद्रक्षेत्र , वाराणसी , मुक्तिक्षेत्र तथा महाश्मशानभूमि भी कहते हैं
- इतना कहकर विष्णु जी अन्तर्धान हो गये और नारद जी सदाशिवजा के पास चल दिए । मार्ग में वे दोनों गण मिले और वे भीनारद के चरणों में गिर कर क्षमायाचना करते हुए बोले - हे ऋषिराज ! हम ब्राह्मण नहीं , अपितु सदा शिव के गण हैं । हमने आपका बड़ा अपमान किया है । इसलिए , हमें अपना दास समझकर कृपा करें , क्योंकि हम अपने कर्मों का फल प्राप्त कर चुके हैं । " नारदजी ने यह सुनकर खेद प्रकट करते हुए कहा - मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी । सदाशिव की माया अपरम्पार है । मैंने जो कुछ कहा है ' हे शिवगणों ! वह होकर ही रहेगा , परन्तु मैं तुम्हें यह वर देता हूँ कि तुम दोनों भाई मुनि के वीर्य एवं राक्षसी के गर्भ से उत्पन्न होगे तथा बहुत प्रतापी होगे । सम्पूर्ण सृष्टि पर विजय प्राप्त करोगे तथा अनेक प्रकार के भोग भोग कर भी सदाशिव की भक्तिसे अचेत न होगे । अन्त में , बानर और मनुष्य द्वारा तुम मुक्ति प्राप्त करोगे इतना कहकर नारदजी पहिले सदाशिव के पास तथा फिर ब्रह्मा के पास गये और वहाँ दोनो हाथ जोड़ , स्तुति करते हुए बोले - “ हे पिता ! आप ने विष्णु की जो कथा मुझसे कही थी - जिसमें भक्ति , वैराग्य , तप , दान की रीति एवं तीर्थ आदि का वर्णन है , वह तो मैंने सुनी ; परन्तु मैं सदाशिवजी की भक्ति से अभी अनभिज्ञ हूँ । इसलिए कृपा कर मुझे क्रम से बताइए कि सदाशिव आदि , मध्य तथा अन्त में क्यों रहते हैं और कैसे प्रसन्न होते हैं ? वे निर्गुण होकर भी सगुण कैसे हो जाते हैं ? आप अपनी तथा विष्णुजी की उत्पत्ति के ऊपर भी प्रकाश डालिए । शिव और पार्वती के जितने भी चरित्र हों , कृपा करके उन पर भी प्रकाश डालिए , जिससे मुझे और आप को भी प्रसन्नता प्राप्त हो ।
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ब्रह्माजी द्वारा शिवजी के सगुण रूप की प्रशंसा अध्याय चौथा
- इतनी कथा सुनाकर सूतजी ने कहा - “ हे शौनकादि ऋषियो ! नारदजी का यह प्रश्न सुन कर , ब्रह्माजी ऐसे प्रेम मग्न हुए कि उनकी आँखों से अश्र धारा बह निकली । उन्हें तन , मन , स्त्री , पुत्र , घर द्वार आदि किसी का भी कुछ ध्यान न रहा । बहुत देर बाद जब वे प्रकृतिस्थ हुए तब ' शिव , शिव ' कहते तथा शिवजी का ध्यान करते हुए हँस कर बोले - “ हे नारद ! तुम्हें बहुत - बहुत धन्य वाद है । तुमने मेरे सम्पूर्ण कुल को मक्त कर दिया है , क्योंकि तुम्हारे हृदय में भगवान् सदाशिव की भक्ति उत्पन्न हुई है । " इस प्रकार प्रशंसा करने के उपरान्त पितामह ब्रह्माजी ने नारद जी से कहा - " हे पुत्र ! मैं सर्वप्रथम अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् सदाशिव के निर्गुण चरित्र का वर्णन करूँगा , तदुपरान्त उनकी सगुण महिमा को कहूँगा । तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि जिस समय सृष्टि का कहीं चिन्ह भी न था , उस समय भगवान् सदाशिव ही निर्गुण रूप से सर्वत्रव्याप्त सच्चिदानन्दस्वरूप , एकमात्र परब्रह्म थे । वे भगवान् सदाशिव सत्य एवं परमा नन्द रूप हैं । वे मन तथा वचन के स्वामी हैं और नामरूप से हीन हैं । वे किसी के वशीभूत नतोदेखने में आते हैं और न कोई उनका आदि - अन्त ही जानता है । वे किसी के वशीभूत न होकर सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी बने हुए हैं । वे ही मनुष्यों के कर्मों के साक्षी हैं तथा सर्व व्यापक होते हुए भी , सब से भिन्न रहते हैं । हे नारद ! उन शिवजी की स्तुति करने में सहस्र फणधारी शेषनाग भी हार गये हैं । योगी लोग उनका भजन करते हैं , परन्तु उनके आदि और अन्त को नहीं जान पाते । वे निर्गुणस्वरूप वाले प्रभु बिना कान के ही सब कुछ सुन सकते हैं , बिना आँख के ही सब कुछ देख सकते हैं , विना नाक के ही सम्पूर्ण सुगन्धियों को सूंघ लेते हैं , बिना मुख के ही सम्पूर्ण पदार्थों का भोजन करते हैं , विना जिह्वा के सम्पूर्ण विद्या को पढ़ते हैं , जिन स्वामी की ऐसी विचित्र महिमा है , उनकी स्तुति भला किस प्रकार की जा सकती है ?
- हे नारद ! ऐसे निर्गुण स्वरूप भगवान सदाशिव ने जब अपने मन में यह इच्छा की कि हम एक से अनेक हो जाँय , उस समय वे सगुणरूप हो गये । उनके निर्गुण एवं सगुण रूप में कोई अन्तर नहीं है । उन्हों ने विष्णु , और ब्रह्मा को उत्पन्न किया है एवं वे ही सम्पूर्ण प्राणियों में प्रतिष्ठित विराट् स्वरूप हैं । उनके सहस्रों नाम हैं , जिनमें - शिव , शंकर , हर , नाथ , महेश , परमदेव , वामदेव , जगदीश्वर , पर मेश्वर , परमात्मा , ब्रह्म , गिरीश , शम्भु , सदाशिव , अनीश , विवुध , पार्वतीपति , चक्री , त्रिशूलपाणि , ईश्वर , सुखदाता , अनादि , अनन्त , सर्व आदि संसार में अधिक प्रसिद्ध हैं । वे भगवान सदाशिव ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा मान प्राप्त करते हैं । संपूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करनेवाले तथा भक्तों को आनन्द प्राप्त करानेवाले वे भगवान उमापति ही सूर्य , चन्द्रमा आदि सहस्रों गुणों से भरी हुई संपूर्ण सृष्टि एवं ब्रह्मा , विष्णु तथा रुद्र के उत्पन्नकर्ता हैं । इस प्रकार भगवान सदाशिव अपने सहस्रों नामों से सम्पूर्ण लोकों में प्रसिद्ध हैं ।
- हे नारद ! अब तुम उन त्रिशूलपाणि भगवान शिव के उस सगुण स्वरूप का । वर्णन सुनो जिसका स्मरण करने से ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं । अपने सगुण स्वरूप में वे मस्तक पर जटाजूट एवं गंगा जी को धारण किये हैं । उनके भाल पर चन्द्रमा की कला एवं धनुषाकार त्रिपुण्ड विराजमान है । वे कानों में कुण्डल पहने हैं और सूर्य , चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तीन लाल नेत्रों को धारण किये हैं । तथा उनका प्रभातकालीन सूर्य के समान पहिला मख पूर्व दिशा की ओर रहता है तथा उनका दूसरा मुख दक्षिण दिशा की ओर उनके कंठ में तीन लकीरें हैं । उस कंठ में विराजित हलाहल की श्यामता भक्तों के मन को अनायास ही हर लेती है । वे अपने गले में मुण्डों की माला धारण किये रहते हैं और हाथ में त्रिशूल लिये रहते हैं । उन्हें कोई चतुर्भुज और कोई पंचमुख कहता है । कइयों ने उन्हें दशभुजाधारी भी कहा है । वे अपने उन हाथों में भिन्न - भिन्न प्रकार के शस्त्र लिये रहते हैं । उँगलियाँ भी सुकोमल एवं अरुण प्रभायुक्त हैं । ऐसे सम्पूर्ण कलाधारी भग वान सदाशिव के पवित्र स्वरूप का स्मरण बड़े - बड़े तपस्वी तथा मुनिजन निश्छल भाव से किया करते हैं ।
- हे नारद ! जिस प्रकार शिवजी के अनेकों स्वरूप हैं , उसी प्रकार उनका ध्यान धरने की क्रियाएँ भी असंख्य हैं ; परन्तु उन्हें जाननेवाले बहुत कम लोग ही पाये जाते हैं । भगवान् सदाशिव की महिमा , स्वरूप तथा नामों की कोई गिनती नहीं हो सकती । वेदों का नाम भी न जाननेवाले गज और गणिका जैसे असंख्य महा पापी मूखों ने जो मुक्ति प्राप्त की , उसका एक मात्र कारण यही है कि उन पर भग वान् श्री त्रिशूलपाणि ने स्वयं ही कृपा कर दी थी । ऐसे दयालु गिरिजापति की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ?
- हे नारद ! भगवान सदाशिव ने ही अपने आनन्द के निमित्त शक्ति को प्रकटा था अर्थात् भगवान् त्रिशूलपाणि के तेज द्वाराही महाशक्ति का जन्म हुआ है । उस महाशक्ति का जो स्वरूप है वह मैं तुम्हें बताता हूँ । वे देवी सोलह शृंगार किये हुए हैं । उनका शरीर श्याम कमल के समान कोमल है । उनके केश धुंघराले तथा कृष्णवर्ण के हैं । उन शक्ति स्वरूपा देवी के ऐसे अनुपम स्वरूप का ध्यान धरकर भक्तों को अत्यन्त प्रसन्नता की प्राप्ति होती है ।
- हे नारद ! भगवान् सदाशिव ने उस परमशक्ति को श्यामरूप में उत्पन्न किया , परन्तु अनेकों भक्त उन्हें गौरवर्ण अथवा सोने के समान रंगवाली कहकर उनका स्मरण एवं ध्यान करते हैं । इस संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है और जहाँ तकवचन तथा मन की गति है , उन सबको इन आदि शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न समझना चाहिए । अब हम तुमसे भगवान् सदाशिव के सगुण स्वरूप के गूढ़ चरित्रों का वर्णन करते हैं ।
- हे नारद ! भगवान् सदाशिव को परब्रह्म एवं भगवती उमा को परमशक्ति समझना चाहिए । सर्वप्रथम भगवान् सदाशिव ने उमा नामधारिणी उस परम शक्ति के साथ विहार करने के निमित्त एक लोक की रचना की , जिसमें दुःख , चिन्ता , शोक तथा दारिद्रय का कोई स्थान नहीं है । वह लोक अत्यन्त रम णीक , परम विचित्र एवं मनोहर है । उस स्थान को भगवान सदाशिव किसी भी समय नहीं छोड़ते , इसीलिए वह अविमुक्त ' कहा जाता है । वह स्थान सृष्टि के सम्पूर्ण जीवों को आनन्द देनेवाला होने के कारण ' आनन्दवन ' के नाम से भी प्रसिद्ध है । वह स्थान सिद्धरूप , तेजस्वरूप तथा अद्वितीय होने के कारण ' काशी ' भी कहलाता है । उस नगर में भगवान् सदाशिव ने अपनी इच्छा से एक ऐसे भवन का निर्माण किया , जो अनेकों प्रकार के रत्नों से अलंकृत है । जिसमें मोतियों की झालरें लटका करती हैं और जहाँ छत्र , विमान आदि असीमित संख्या में रक्खे हुए हैं । उस लोक अथवा नगर में कल्पवृक्ष के समान मनोभिला पापूर्ण करनेवाले सहस्रों वृक्ष विद्यमान हैं । उस भवन को भगवान् सदाशिव ने अपनी आदिशक्ति सहित सुशोभित किया । उन्होंने परमशक्ति को सम्बोधित । करते हुए कहा - “ हे प्रिये ! यह लोक अत्यन्त उत्तम , परम पवित्र एवं प्रस नता प्रदान करनेवाला है , अतः यह मुझे तथा तुझे अत्यन्त प्रिय है । यहाँ किसी भी प्रकार के दुःख का कभीप्रवेश न हो सकेगा । जो मनुष्य यहाँ पहुँच जायगा ; वह नरक के दुःखों से मुक्त हो जायगा । हम इस काशी की जो प्रशंसा करते हैं , सो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ; क्योंकि इसकी स्तुति का वर्णन करने में वेद भी असमर्थ हैं । " इतना कहकर भगवान् सदाशिव भगवती उमा के साथ वहाँ विहार करने लगे । जब उनके हृदय में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि हम कोई रचनात्मक कार्य करें , उस समय उन्होंने भगवती उमा से इस प्रकार कहा - “ हे प्रिये ! अब हम कोई ऐसा काम करना चाहते हैं , जिससे हम दोनों को प्रसन्नता की प्राप्ति हो ।
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