google.com, pub-7729807779463323, DIRECT, f08c47fec0942fa0 google.com, pub-7729807779463323, DIRECT, f08c47fec0942fa0 श्री महाशिवपुराण सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ और नारदजी का तपस्या शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त दूसरा अध्याय - Selling Settlement
Thursday, July 10.

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  • श्री महाशिवपुराण सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ और नारदजी का तपस्या शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त दूसरा अध्याय

     श्री महाशिवपुराण सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ

     शिव जी की कथा शिव महापुराण कथा  हिंदी में कहानी भगवान् शिव महादेव जी की कहानी हिंदी में  नारदजी का तपस्या  शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त द्वितीय अध्याय वेदव्यासजी के शिष्य श्री सुतजी , जिन्होंने अपने गुरु की सेवा द्वारा महानता प्राप्त किया था श्री महाशिवपुराण में जाने ऐसे घोर समय में कलियगवासी जीव किस प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे ? ब्राह्मणों का तेज क्यों नष्ट हो रहा है क्षत्रिय जाति धर्म को त्याग करेंगे? दोस्तों इस पेज में भगवान श्री शिव जी की कथा और  कहानियां आपके लिए है 

    श्री सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ

    श्री सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ


    • एक समय महर्षि श्री वेदव्यास जी के प्रधान शिष्य श्री सूतजी , जिन्होंने अपने गुरु की सेवा द्वारा बड़प्पन प्राप्त किया था ,नैमिपारण्य नामक वन में भगवान महशिव की तपस्या कर रहे थे । वे सदैव शंकरजी के ध्यान में मग्न रह कर उन्हीं के गुणों का कीर्तन किया करते थे । उन्हीं दिनों संयोग से शौनक ऋषि अपने साथ अन्य बहुत से ऋषियों को लेकर श्री सूतजी के पास आये तथा उनसे इस प्रकार वोले - " हे सूतजी ! हम लोग संसार रूपी अथाह सागर में डूबे हुए हैं । हमारा परम सौभाग्य है कि आज हमें आपके दर्शन प्राप्त हुए । कुछ समयपश्चात् वह युग आने वाला है , जिसमें पुराने धर्म नष्ट हो जायेंग तथा पापाचार में वृद्धि होगी।सब लोग उस धर्म को त्याग कर कुमार्ग पर चलने लगेंगे । चारों वर्ण इस प्रकार अपने कमों से पतित हो जायेंगे कि ब्राह्मणवर्ण खेती करने लगेगा । ब्राह्मण छलछिद्र में अत्यन्त चतुर होंगे और अपने धर्म को भुला बैठेंगे । क्षत्रिय भी अपने जाति - धर्म को त्यागकर , युद्ध क्षेत्र से विमुख हो, पलयानवादी बन जायेंगे तथा चोरी करने में अत्यन्त चातुरी का प्रदर्शन करेंगे । वे शूद्रों के समान कर्म कर उठेंगे और उसी अवस्था में रह कर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे । गौ की रक्षा करना वे छोड़ देंगे । इस प्रकार क्षत्रिय जाति अत्यन्त अन्यायी एवं दुखदायी हो जायगी । इसी प्रकार वैश्य भी अपने श्रेष्ठ धर्म को त्याग कर , पाप कमों द्वारा धन का संचय करेंगे एवं उत्तम मार्ग को ठुकरा देंगे । इसी प्रकार शूद्र भी अपने धर्म को त्याग कर ब्राह्मणों का कर्म करने की चेष्टा करेंगे । शूद्रों द्वारा इस प्रकार विपरीत कर्म किये जाने पर ब्राह्मणों का तेज नष्ट हो जायगा । ऐसी दशा में सम्पूर्ण प्राणियों की आयु भी कम रह जायगी । 
    • संसार में जब इस प्रकार का अधर्म बढ़ जायगा और जातिवन्धन नष्ट प्राय हो जायगा , उस समय भिक्षकों द्वारा भिक्षा माँगे जाने पर भी उन्हें कोई कुछ दान नहीं देगा । वर्णसंकर मनुष्य अपने को उच्चकुलीन समझकर और लोगों को हेय दृष्टि से देखेंगे । स्त्रियां भी दृष्ट प्रकृतिवाली बनकर अपने पति की सेवा से विमुख हो जायेंगी ।ऐसी अवस्था में सन्तान भी अपने माता - पिता से प्रीति रखना त्याग देगी । मनुष्यों में संयम , जप , तप , तथा शील नष्ट हो जायगा । ऐसी अवस्था में प्रति दिन सत्य और शौच का अभाव होता जायगा ।
    •  हे सूतजी ! ऐसे घोर कलिकाल में लोग तपस्वियों को केवल इसीलिए सम्मान देंगे कि वे उनके पुत्र आदि उत्पन्न होने की कामना को पूर्ण करने में सहायता प्रदान करें ।इस युग में केवल बालों को सँभाल लेना ही सुन्दरता का लक्षण होगा और अपने पेट को भर लेना ही सबसे श्रेष्ठ कार्य समझा जायेगा । भला , आप ही बताइए कि ऐसे घोर समय में कलियगवासी जीव किस प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे ? वे अपने पापों तथा सहस्रों दुष्कमों को भस्म कर सत्यपथ को अपनाने में किस प्रकार समर्थ हो सकेंगे ?आप सब प्रकार की चिन्ताओं को दूर करके प्रसन्नता प्रदान करनेवाले हैं । हम लोग इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि तब तक हमें आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो गया । अब कृपा करके कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे हमारी यह चिन्ता नष्ट हो जाए और हम प्रसन्नता को प्राप्त करें । संसारी जीवों का हित चाहने वाला आपके समान और कोई नहीं है । आपने भगवान वेदव्यासजी की  अत्यंत सेवा की और अनेक पापियों को पापरूपी समुद्र से पार उतारा है । भगवान्  कृष्णा ..... ने अत्यन्त कृपा करके आपको सम्पूर्ण पुराण पढाये है ,अतः आप   हम पर भी अवश्य कृपा करें । 
    • " शौनक ऋषि के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सून कर सूतजी अत्यंत  प्रसन्न हुए । तदुपरान्त अपने नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की वर्षा करते हुए इस प्रकार बोले - " हे शौनकजी तथा अन्य ऋषि महानुभावो ! आप लोग परमज्ञानी एवं सम्पूर्ण संसार का हित चाहनेवाले हैं । यद्यपि संसारी लोगों की वह बुद्धि नष्ट हो गयी है . जिसमें सबके मंगल का ध्यान रहता है ,परन्तु आप सब लोग उसके अपवादस्वरूप हैं । क्योंकि आपने अन्य लोगों के उपकार के लिए ही मझसे यह प्रश्न किया है । अतः अब मैं आपकी इस प्रीति के वशीभूत होकर भगवान सदाशिव की उस परम स्तुति का वर्णन करूँगा , जिसे सुनकर कलि काल के दुःख नष्ट हो जाते हैं तथा अज्ञानी जीवों को भी मुक्ति प्राप्त होती है ।यही कारण है कि जो लोग बुद्धिमान होते हैं , वे भगवान सदाशिव की तपस्या द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं । शिवलोक में किसी भी प्रकार शोक और दुःख कभी भी नहीं व्यापता । जो लोग शिवजी का नमन करते हैं,वे बहुत संतान प्राप्त करते हैं । अतः हे ऋषियों ! उचित यही है कि इस संसार को दुःखरूप समझकर शिवजी के चरणों में ही प्रीति लगायी जाय । । हे शौनक ! शिवजी की स्तुति करने में वेद भी असमर्थ हैं , अतः शिवजी का क्षण । भर के लिए भी ध्यान करना नहीं भूलना चाहिए । 
    • सूतजी के मुख से यह वचन सुनकर शौनक ऋषि अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मख बैठ गये । तदुपरान्त सब ऋपियों ने परस्पर विचार विनिमय करके सूतजी से यह कहा - " हे सूतजी ! शिवजी तो निर्गुण कहलाते हैं , उन्होंने सगुण रूप किस प्रकार धारण किया ? उन्होंने संसार को किस प्रकार उत्पन्न किया तथा स्वयं किस प्रकार उत्पन्न हए ? वे प्रलयकाल में संसार को नष्ट करके , स्वयं किस प्रकार स्थित रहते हैं ? वे किस कार्य से प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर क्या वरदान देते हैं ? हे सूतजी ! यह सब वृत्तान्त तथा इसके अतिरिक्त भी , भगवान सदाशिव के सम्बन्ध में और जो कुछ भी जानने योग्य हो ,आप उसे हमें बताइए ; क्योंकि आप श्री वेदव्यासजी की कृपा से भूत , भविष्य एवं वर्तमान - इन तीनों कालों की गति को जानने में समर्थ हैं । तभी तो व्यासजी ने कृपा करके अपने श्रीमुख से आपको इस ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य समझा दिया है । यह बात निश्चित है कि जब तक श्रेष्ठ ब्रह्म - ज्ञानी से भेंट नहीं होती ,तब तक शोक तथा मोह नष्ट नहीं होता है ।हम तो उसी को बड़ा भाग्यवान मानते हैं , जो शिवजी की कथा कीर्तन से अपना सम्बन्ध सदैव बनाये रहता है । ”




    दूसरा अध्याय

    नारदजी का तपस्या  शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त

     शिव महापुराण कथा


    • शौनक आदि ऋषियों के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर सूतजी अत्यन्त प्रसन्न हुए । तदुपरान्त उनको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे " हे शौनकादि ऋषियो ! आपने जो प्रश्न मुझ से किया है , वही प्रश्न एक समय नारदजी ने श्री ब्रह्माजी से किया था । उस समय श्री ब्रह्माजी ने उन्हें समुचित उत्तर देकर प्रसन्नता प्रदान की थी । मैं आपसे वही प्रसंग कहता हूँ ।
    • एक बार देवर्षि नारदजी तपस्या करने के निमित्त हिमालय पर्वत पर जा पहँचे और वहाँ श्री गंगाजी के तट पर बैठ कर अत्यन्त कठिन तपस्या करने लगे । उन्होंने निश्चल भाव से सहस्रों वर्षों तक घोर तपस्या की । उनकी उस उग्र तपस्या को देख कर देवताओं के राजा इन्द्र अत्यन्त भयभीत हुए । उन्होंने यह समझ कि नारदजी मेरे इन्द्रासन पद की प्राप्ति के लिए ही सम्भवतः ऐसी कठिन तपस्या कर रहे हैं । अस्तु , इन्द्र ने भयभीत होकर यह विचार किया कि मझे किसी प्रकार नारदजी की तपस्या में विघ्न डाल देना चाहिए । यह निश्चय करके उन्होंने अपने मित्र कामदेव को अपने पास बुलाया । जब कामदेव उनके । पास आगया , तब उन्होंने उसे सम्बोधित करते हुए यह कहा - हे मित्र ! तुम्हारी सहायता से मैंने अनेक अहंकारियों के अहंकार को नष्ट किया है । इस समय देवर्षि नारदजी हिमालय पर्वत पर बैठे हुए शिवजी की तपस्या कर रहे हैं । मुझे भय है । कि कहीं वे अपनी तपस्या द्वारा मेरे इन्द्रासन को न छीन लें , अतः तुम कोई ऐसा उपाय करो , जिससे नारदजी की तपस्या भंग हो जाये ।
    • सूतजी बोले - " हे ऋषियो ! इन्द्र के मुख से निकले हुए इन शब्दों को । ' सुनकर कामदेव ने उन्हें मनोकामना सिद्धि का विश्वास दिलाते हुए , नारदजी पर विजय पाने के हेतु अपनी संपूर्ण सेना को तैयार किया । तदुपरान्त उसने । नारदजी के समीप पहुँचकर वहाँ चारों ओर अपनी माया फैला दी । काम देव के प्रभावके कारण उस निर्जन स्थान में भी अनेकों प्रकार के पुष्प खिल उठे एवं कोकिल आदि पक्षी अपनी मीठी बोली से सबका ध्यान अपनी ओर । ' आकर्षित करने लगे । हृदय में कामदेव को जगाने वाली तीनों प्रकार की । शीतल , मन्द , सुगन्ध वायु बहने लगी । अपनी उस विजयिनी सेना को देख कर कामदेव के हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता हुई । वह अपनी शक्ति भर जो कुछ भी कर सकता था , उसे कर चुका ; परन्तु उसके कृत्यों से नारदजी का मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ ।
    • हे ऋषियो ! नारदजी का मन विचलित न होने का जो कारण था , उसे में । आपको सुनाता हूँ । कारण केवल यही था कि जिस स्थान पर नारदजी बैठे हए तपस्या कर रहे थे , उसी स्थान पर एक बार पहिले सदाशिव ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था । तदुपरान्त उसे जीवित होने का वर देकर ' यह कहा था कि अन्य स्थानों पर तेरा प्रभाव भले ही हो , परन्तु इस स्थान पर कभी कोई प्रभाव नहीं हो सकेगा । यही कारण था , जिससे कामदेव निराश एवं लजित होकर इंद्र के पास लौट गया और उन्हें अपने निष्फल मनोरथ होने का सब वृत्तान्त कह सुनाया । कामदेव की बात सुनकर देवराज इन्द्र की सभा के सम्पूर्ण सभासद नारदजी की स्तुति एवं प्रशंसा करने लगे । 

    • हे ऋपियो ! इधर अपनी तपस्या के पूर्ण हो जाने पर नारदजी को योग दृष्टि द्वारा जब यह ज्ञात हुआ कि उन पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ काम देव आया था परन्तु वह असफल मनोरथ होकर लौट गया है तो उनके हृदय में कुछ अहंकार उत्पन्न हो गया । उन्होंने यह समझा कि वे कामदेव से अधिक शक्तिशाली हैं । इस रहस्य को वे नहीं जान सके कि यह मेरा नहीं अपितु इस तपोभूमि का प्रताप है । अस्तु , नारदजीअपने तपोबल पर अत्यन्त गर्व करते हुए वहाँ से उठकर शिवजी के पास जा पहुंचे और अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें अपनी तपस्या का सब हाल सुनाने लगे । नारदजी की बात सुनकर शिवजी ने उन्हें समझाते हुए कहा - “ हे देवर्षि ! कामदेव पर विजय पाने की सामर्थ्य तीनों लोकों में किसी के पास नहीं है । तुमने मुझसे तो यह बात कही , परन्तु मैं तुम्हें समझाता हूँ कि तुम विष्णुलोक में जाकर इस बात को मत कह बैठना । तुम इस बात को अपने मन में गुप्त ही रखना ।
    • हे ऋषियो ! अहंकार में डूबे हुए नारदजी को शिवजी की यह बात अच्छी नहीं लगी । अस्तु , वे उनसे विदा लेकर , ब्रह्मा जी के समीप जा पहुँचे । वहाँ भी उन्होंने अपनी प्रशंसा करते हुए तपस्या तथा कामदेव पर विजय पाने का वृत्तान्त कह सुनाया । अपने पुत्र नारद के उस अहंकार को देखकर ब्रह्माजी ने भी भग वान सदाशिव की भाँति उन्हें बहुत कुछ समझाया , परन्तु नारदजी के हृदय में अहंकार अपना घर कर बैठा था , इसलिए पिता का समझाना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा और वे वहाँ से उठकर विष्णुलोक में आ पहुँचे । नारदजी को आया हआ देखकर भगवान विष्णु ने अपने आसन से उठ कर , उन्हें अपने कंठ से लगाते हए पूछा - - “ हे देवर्षि ! अब तक आप कहाँ रहे ? " यह सुनकर नारदजी ने अपनी तपस्या तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे भी कह दिया । उस समाचार को सुनकर भगवान विष्णु शिवजी की इच्छा समझकर मन - ही - मन हँसते हुए बोले - ' हे नारदजी ! जो मनुष्य ब्रह्मज्ञानी नहीं है और परब्रह्म की आराधना से रहित हैं , उन्हीं के हृदय में मोह की उत्पत्ति होती है । आप तो ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करनेवाले हैं , तब भला कामदेव आपका अनिष्ट कैसे कर सकता है भगवान विष्णु के मुख से इन शब्दों को सुनकर नारदजी और भी अहंकार में भर गये तथा इस प्रकार अभिमानपूर्ण वचन बोले - हे प्रभो ! मुझे यह शक्ति आपकी कृपा से ही प्राप्त हुई है ।
    • हे ऋपियो ! इतना कह कर नारदजी भगवान विष्णु से विदा लेकर चल दिये । उस समय भगवान सदाशिव ने अपने हृदय में यह इच्छा की कि मझे नारदका अहंकार दूर कर देना चाहिए । अस्तु , उनकी इच्छा से जिस मार्गसे नारदजी चले जा रहे थे , उस मार्ग में स्वर्ग के समान सुन्दर एक श्रेष्ठनगर शीघ्र ही बस । गया । उस नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था । जिस समय नारदजी उस नगर से होकर जा रहे थे , उस समय उस राजा की कन्या के स्वयम्बर का आयोजन हो रहा था । उस राजकन्या की सुन्दरता पर सम्पूर्ण संसार मग्ध था । नगर - निवासियों द्वारा जवनारदजी को यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वे भी उस स्वयं वर सभा में जा पहँचे । अब राजा शीलनिधि ने अपनी सभामें नारदजी को पधारते हुए देखा तो उसने आगे बढ़कर उनका अत्यन्त सम्मान किया । फिर उन्हें लेजाकर अपने आसन पर बैठा दिया । इसके उपरान्त उस राजा ने अपनी परमसुन्दर कन्या को भी बुलाकर नारदजी के सम्मुख उपस्थित कर दिया । बहुत समय तक नारदजी उस कन्या के अनुपम स्वरूप कोअपलक दृष्टि से देखते रहे । तदुपरान्त जब उन्होंने उस कन्याके लक्षणों का विचार किया तो यह पाया कि जो भी मनुष्य इस कन्या का पति होगा , वह संसार में अमर होकर अक्षय कीर्ति को प्राप्त करेगा और युद्ध में कभी किसी से भी परास्त न हो सकेगा । कन्या के इन लक्षणों को विचार कर नारदजी वहाँ से उठकर अपने मार्ग पर फिर चल दिये ; परन्त इस समय उनका मन काम के वशीभूत होकर उस कन्या को स्वयं प्राप्त करने को लालायित हो रहा था । इस प्रकार वे अपनी बुद्धि के विपरीत कामदेव के जाल में फंस गये । उन्होंने यह भी विचार किया कि जब तक में सुन्दर नहीं हूँ तब तक मझे उस कन्या का मिलना असम्भव है ; क्योंकि स्त्रियाँ सुन्दरता को हीअधिक प्यार करती हैं । अस्तु मुझे यह उचित है कि में भगवान विष्णु से उनकी सुन्दरता माँग लूँ और राजकुमारी को मोहित कर , अपने साथ विवाह करने के लिए उसे तैयार कर लूँ । ।
    • हे ऋषियो ! इस प्रकार निश्चय करके नारदजी वहीं मार्ग में एक स्थान पर बैठकर श्रीविष्णु का ध्यान करते हए यह प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभो ० संसार में आपके समान मेरा हितू अन्य कोई नहीं है । अस्तु आप यहीं प्रकट होकर मेरे मनोरथ को पूर्ण करें । नारदजी की इस प्रार्थना को सुनकर श्रीविष्णु उसी स्थान पर प्रकट हो गये । जब नारदजी ने उन्हें अपना मन्तव्य सुनाया तो उन्होंने उत्तर दिया हे नारद ! जिस प्रकार वैद्य रोगी की इच्छा के प्रतिकूल भोजन देता है , उसी प्रकार में भी आपकी सेवा करूँगा । ' इतना कह कर श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये । नारदजी उनके गूढ़ वचनों का भावार्थ नहीं समझ सके । अस्तु , नारदजी का सम्पूर्ण शरीर श्री विष्णु जैसा हो गया , परन्तु उनका मुख बन्दर जैसा बना रहा । नारदजी वहाँ से उठकर शीघ्रतापूर्वक पुनः राजसभा में जा पहुँचे । नारदजी बारम्बार उचकते हुए , मन ही मन यह विचार करके प्रसन्न होने लगे कि अब राजकन्या मुझे छोड़कर अन्य किसी को वरण नहीं करेगी । उस सभा में नारदजी के इस नये स्वरूप को कोई देख नहीं सका , अतः सबने उन्हें नारद समझकर ही प्रणाम किया । भगवान् सदाशिव के दो गण भी ब्राह्मण का रूप धारण किये हुए बैठे थे । उन दोनों से यह रहस्य छिपा न रह सका । अस्तु , वे दोनों नारदजी के पास जा कर बैठ गये । उन्होंने मुस्काते हुये नारदजी से कहा - “ हे मुनिश्रेष्ठ ! आपको तो भगवान विष्णु ने अत्यन्त सुन्दर रूप प्रदान कर दिया है । अब भला , राजकन्या आपको छोड़ कर अन्य किसी को क्यों स्वीकार करेगी ?
    • " सूतजी ने कहा - हे शौनकादि ऋषियो ! इसी बीच वह राजकन्या भी स्वयम्बरसभा में आ पहुँची । जब उसने नारदजी के उस भयानक स्वरूप को देखा तो वह अपने मन में अत्यन्त अप्रसन्न हुई और मुँह फेर कर दूसरी पंक्ति में अपने योग्य पति को ढूँढ़ने लगी । इधर नारदजी की यह दशा थी कि वे बारम्बार उचक - उचक कर , चारो ओर से उस राजकन्या के समीप पहुँचने का प्रयत्न करते थेशिवजी के वे दोनों गण नारदजी की इस दशा को देखकर परस्पर और अधिक हास्य कर उठे । ठीक उसी समय भगवान विष्णु उस सभा में आ पहुँचे । उन्हें देखते ही राजकन्या ने प्रसन्न होकर , उनके गले में वरमाला डाल दी । यह देखकर अन्य सबराजा तो निराश हुए ही , देवर्षि नारदजीअत्यन्त विह्वल हो गये । उस समय उन दोनों शिवगणों ने नारदजीसे यह कहा - " हे मुनिराज ! आप इतने दुखी क्यों होते हैं ? कृपा कर अपने मुख को किसी दर्पण में तो देख लीजिए ।

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    श्री सूतजी द्वारा भगवान सदा शिव जी की कथा का आरंभ

     शिव जी की कथा शिव महापुराण कथा  हिंदी में कहानी भगवान् शिव महादेव जी की कहानी हिंदी में  नारदजी का तपस्या  शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त द्वितीय अध्याय वेदव्यासजी के शिष्य श्री सुतजी , जिन्होंने अपने गुरु की सेवा द्वारा महानता प्राप्त किया था श्री महाशिवपुराण में जाने ऐसे घोर समय में कलियगवासी जीव किस प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे ? ब्राह्मणों का तेज क्यों नष्ट हो रहा है क्षत्रिय जाति धर्म को त्याग करेंगे? दोस्तों इस पेज में भगवान श्री शिव जी की कथा और  कहानियां आपके लिए है ...


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