Shiv Puran kahani
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Shiv Puran Kahani
स्वायंभुव एवं शतरूपा की उत्पत्ति का वर्णन अध्याय 13
ब्रह्माजी बोले - “ हे नारद ! अब मैं तुम्हें वह वृत्तान्त सुनाता हूँ , जिस प्रकार इस मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति हुई । भगवान् सदाशिव से शक्ति प्राप्त कर मेंने एक पुरुष तथा एक स्त्री को अपने आधे - आधे शरीर से उत्पन्न किया । उस पुरुष का । नाम ' स्वयंभू मनु ' तथा स्त्री का नाम ' शतरूपा हुआ । शतरूपा ने तपस्या द्वारा मनु को पति रूप में प्राप्त किया । फिर उन दोनों - पुरुष तथा स्त्री ने मेरे पास आकर कहा - हे पिता ! आप हमें कुछ आज्ञा दीजिए । " तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें यह आज्ञा दी कि तुम सर्वप्रथम भगवान सदाशिव का पूजन करो , तदुपरान्त उनसे आज्ञा पाकर , सृष्टि उत्पन्न करने का कार्य करो ।
मेरी आज्ञा को स्वीकार कर उन्होंने ऐसी तपस्या की कि भगवान सदाशिव ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया तथा वरदान माँगने के लिए कहा । उस समय मनु ने उनकी स्तुति करते हुए यह कहा - हे प्रभो ! अपने मन की इच्छा को आप के सामने प्रगट करना मूर्खता होगी , अतः आप हमारे लिए जो उचित समझें वह करें । यह सुनकर भगवान त्रिशूलपाणि प्रसन्न होकर बोले - “ हे मनु ! तुम मनुष्य सृष्टि को उत्पन्न करो । उस सृष्टि कार्य में तुम्हें कोई कष्ट न होगा । तुम्हें तीन प्रकार के ऋण चुकाने होंगे जिन्हें देवऋण , पितृऋण तथा ऋषिऋण कहते हैं । इन तीनों ऋणों से उऋण होने का उपाय विद्या पढ़ना , संतान उत्पन्न करना तथा यज्ञ करना है । इतना कह कर शिवजी अन्तर्धान हो गये ।
हे नारद ! भगवान सदाशिव से इस प्रकार वरदान प्राप्त कर मनु तथा शत रूपा मेरे समीप लौट आये और मुझे सब वृत्तान्त कह सुनाया । उसे सुनकर मैंने भी उनसे कहा - " तुम दोनों सन्तान - की उत्पत्ति करो । " मेरी आज्ञा पाकर वे दोनों सृष्टि उत्पन्न करने लगे । सर्व प्रथम उन्होंने दो पुत्र तथा तीन पुत्रियों को उत्पन्न किया । उनमें एक पुत्र प्रियव्रत के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उसने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर श्रेष्ठ धर्म का पालन किया । उसकी सन्तान भी अत्यन्त शीलवान हुई । आगे चलकर उसी के वंश में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने अवतार लिया । मनु के दूसरे पुत्र का नाम उत्तानपाद था । उसके वंश में ध्रुव के समान योगी भक्त का जन्म हुआ । मनु की पहली पुत्री का नाम अनुमति था । उसका विवाह मेरे पुत्र रुचि नामक मुनि के साथ हुआ था । वह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय था । उसके द्वारा यज्ञ और दीक्षा नामक दो संतानों की उत्पत्ति हुई । मनु की । दसरी पुत्री का नाम देवहूति था । उसका विवाह कर्दम मुनि के साथ हुआ था । उसके गर्भ से भगवान कपिल देव ने जन्म लिया । कर्दम मुनि के कला , अनुसूया , श्रद्धा , निवर्चा , कागति , शान्ति , अरुन्धती , ख्याति , वर्हती तथा वृहती नामक दस कन्याएँ भी हुईं । इनमें से नौ कन्याएँ मरीच , अत्रि , अंगिरस् , पुलस्त्य , पुलह , कृतु , भृगु , वशिष्ठ तथा अथर्वण नामक नौ ऋपियों कोव्याही गई ।
मनु की तीसरी पुत्री का नाम प्रसूति था । उसका विवाह दक्ष के साथ हुआ । उन दोनों से साठ कन्याएँ उत्पन्न हुईं । उनमें से दक्ष ने दस कन्याओं का विवाह धर्मराज के साथ कर दिया । सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को दी तथा तेरह कन्याएँ कश्यप को , चार कन्याएँ तार्क्ष्य को एवं , भूत , अंगिरस् तथा कृशाश्व को दो दोकन्याएँ व्याह दीं । उन सबसे बहुत अधिक सन्तानों की उत्पत्ति हुई । उसी के कुल में हमने , विष्णु जी ने तथा शिवजी ने जन्म लिया । इस प्रकार अपनी साठो पुत्रियों का विवाह करने के उपरान्त दक्ष ने मेरे पास आकर सब हाल कह सुनाया और यह पूछा कि अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं । दक्ष की बात सुनकर मैंने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा " हे पुत्र ! अब तुम कोई ऐसा उपाय करो , जिससे तुम्हारी एक पुत्री का विवाह शिवजी के साथ हो सके । ऐसा करने से तुम्हारा जन्म सफल हो जायगा और हमारी सृष्टि पवित्र हो जायगी । मेरी यह आज्ञा सुनकर दक्ष कठिन तपस्या करने के लिए चला गया । उस तपस्या के प्रभाव से आदिशक्ति जगदम्बा ने दक्ष के घर में अवतार ग्रहण किया ।
चौदहवाँ अध्याय
वैकुंठ आदि लोकों का वर्णन Shiv Puran Kahani
नारद जी ने हँसकर कहा - “ हे पिता ! अब आप अपने , विष्णुजी के एवं शिवजी के लोकों का वर्णन कीजिए । " यह सुनकर ब्रह्माजी भगवान सदाशिव का ध्यान धर कर बोले - “ हे पुत्र ! मेरे लोक का नाम सत्यलोक है । इसके ऊपर विष्णुजा तथा शिवजा के लोक हैं , जिन्हें वेद तथा पुराण परमधाम कह कर पुकारते हैं । सत्यलोक के ऊपर वैकुंठलोक है । वह सोलह करोड़ योजन की परिधि में चौकोर बसा हुआ है । उसमें रत्नों से भरे हुए स्वर्ण - मन्दिर , बाग , उपवन तथा कुएँ आदि सर्वत्र सुशोभित हैं । इसको स्वर्गभी कहा जाता है । हे नारद ! अब मैं तुम से उस लोक का वर्णन करता हूँ , जो स्वर्ग से ऊपर है और जिसे स्वामिकार्तिकेयलोक कहते हैं । वह लोक चौंसठ योजन की परिधि में चौकोर वसा हुआ है । उस लोक के सभी घर रत्नों से भरे हुए हैं । उमलोकी स्वामी स्वामिकार्तिकेय हैं , जिन्होंने तारकासुर का वध कर देवताओं को आन प्रदान किया था । वे भगवान सदाशिव के पुत्र होकर , उन्हींक पदपर विराजमान है ।
हे नारद ! उस लोकके ऊपर शक्तिलोक है । वहाँ सम्पूर्ण सृष्टि की माताजग दम्बाआदिशक्ति निवास करती हैं । वहाँ इन्द्र आदि देवता जगन्माता की सेवा करते हुए उनके चरणों का ध्यान धरते रहते हैं । हे पुत्र ! तुम्हें यह जान लेना चाहिए । कि इस सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणी उन आदिशक्तिकी कृपा से ही ठहरे हुए हैं । वे जग दम्वा भगवान् सदाशिव की अर्धांगिनी हैं । उन्हीं के अंश द्वारा मेरी पत्नी ब्रह्माणी . विष्णुजी की अर्धाङ्गिनी लक्ष्मी एवं स्वाहा , स्वधा , सिद्धा , विश्वा तथा इन्द्राणी की उत्पत्ति हुई है । वह शक्तिलोक भली - भाँति सजा हुआ है ।
हे नारद ! शक्तिलोक के ऊपर शिवलोक है । वहाँ किसी कोचिन्ता और मोह नहीं व्यापते हैं । जिस स्थान पर भगवान् सदाशिव का सिंहासन है . वह स्थान परम मनोहर है । शिवजी के बैठने का सिंहासन रत्नों से जड़ा हुआ है । उसके पास ही शिवजी के तथा भगवती आदिशक्ति के अनेक निवास एवं विहार स्थल बने हुए हैं । उस शिव लोक का विस्तार दो सौ छप्पन करोड़ योजन है । उस लोक के बीचो वीच अत्यन्त सुन्दर , पवित्र तथा सब प्रकार की चिन्ताओं को नष्ट करनेवाला भूतभावन का मुख्य निवासस्थल बना हुआ है । उन त्रिशूलपाणि शिवजी द्वारा ही मेरी , विष्णुजी की तथा रुद्र की उत्पत्ति हुई है । वे सब के स्वामी , स्वाधीन तथा एकरूप हैं । उनी शिवलोक में शिवजी की श्रेष्ठ गोशाला बनी हुई है . जिसे गोलोक कह कर पुकारा जाता है । उसके स्वामी श्रीकृष्णजी तथा श्री राधिका जी हैं ।
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