shiv puraan adhyaay 11 aur adhyaay 12
Shiv Purana adhyaay 11 aur adhyaay 12
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Shiva Purana adhyaay 11 aur adhyaay 12
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Panchatatv parvat mool tatha kala aadi kee utpatti ka varnanपंचतत्व पर्वत मूल तथा कला आदि की उत्पत्ति का वर्णन अध्याय 11
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ब्रह्माजी बोले - “ हे नारद ! भगवान् सदाशिव की आज्ञा पाकर मेंने सर्वप्रथम पृथ्वी , आकाश आदि पंचतत्त्व , पर्वत , मूल एवं कला आदि को उत्पन्न किया । तदु परान्त अपनी इच्छा से विरचि , अग्निरस , शातातप , भृगु , पुलस्त्य , पुलह तथा वशिष्ठ - - इन सप्त ऋषियों को जन्म दिया । फिर मैंने अपने प्रत्येक अंग से तुम अर्थात् नारद , कर्दम एवं दक्ष आदि दस पुत्रों को उत्पन्न किया । फिर स्तन से । मनुष्य , पीठ से पाप और अन्य अंगों से प्रीति . तृष्णा आदि को प्रकट किया , तदुप रान्त क्रमानुसार नक्षत्र , दिशा , दिक्पाल एवं चन्द्रमा आदि को उत्पन्न किया । परन्तु अपने द्वारा उत्पन्न की हुई , उस तामसी सृष्टि को देखकर मुझे अत्यन्त चिन्ता हुई । रात्रि के कारण अब मुझे भूख लगी और में राक्षस - यक्षादि को खाने के लिए । दौड़ा , उस समय मैंने अपने शरीर को भयंकर बनाकर , काल को उत्पन्न किया ।
ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद ! इसके उपरान्त मैंने उस शरीर को त्याग कर , स्त्री का स्वरूप धारण किया । उस समय मेरे उस रूप को देखकर सब ऋषि - मुनि आसक्त होकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़े । तब मैंने उस शरीर को बदल कर एक दूसरा शरीर ग्रहण कर लिया और अपने घुटनों द्वारा असुरों की उत्पत्ति की । वे मुझे पहिचान नहीं सके . अतः निर्लज बन कर काम के वशीभूत हो , मेरे पास दौड़े चले आये । उनके भय से भयभीत होकर मैंने अपनी रक्षा के लिए भगवान् सदाशिव से प्रार्थना की और यह कहा कि हे प्रभो ! आप इन दुष्टों को शीघ्र ही नष्ट कर डालें । मेरी प्रार्थना सुनकर भगवान् भूतभावन ने अप्रकट रूप से मुझे यह आज्ञा दी कि तुम अपने इस शरीर को बदल डालो । तब मैंने उनकी आज्ञानुसार अपने शरीर को फिर बदल दिया । जिस समय मैंने शरीर को बदला , वह समय सायंकाल कहलाया । उसमें सम्पूर्ण असुर अचेत होकर गिर पड़े । तदुपरान्त मैंने मनुष्यों की सृष्टि की । अस्त . मैंने दूसरा स्वरूप धारण कर राक्षस , गन्धर्व , यक्ष , गुह्य , किन्नर , किम्पुरुष , विद्याधर , ईश्वर , भूत , प्रेत आदि तथा स्त्री को उत्पन्न किया , परन्तु इन जीवों की उत्पत्ति से भी मेरे हृदय को प्रसन्नता प्राप्त नहीं हुई ।
ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद इसके उपरान्त मैंने शिवजी की इच्छा से हाथी , सिंह , बैल आदि बद्रि हीन जीवों को उत्पन्न किया । इस सृष्टि को उत्पन्न करने के पश्चात् मैंने यह विचार किया कि यह लोग क्या काम करेंगे । यह सोच कर जैसे ही मैंने श्रीशिवजी का ध्यान किया तो चारो वेद उसी समय मेरे द्वारा उत्पन्न हो गये । उनसे मैंने धन विद्या , गानविद्या एवं सम्पूर्ण कथाओं से युक्त पुराणों को , जिन्हें पंचम वेद कहा जाता है , उत्पन्न किया । इसके बाद मैंने संपूर्ण आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य ग्रहस्थ । वाणप्रस्थ , संन्यास एवं व्रत , धर्मशास्त्र , नीति , मोक्ष , धर्म अर्थ , काम तथा वैद्यक शास्त्र को उत्पन्न किया । इस प्रकार में जब संपूर्ण सृष्टि कर चुका तब विष्णु उसका पालन करने लगे एवं शिवजी पृथ्वी को स्थिर रखने के कार्य में संलग्न हुए । हे । नारद ! सृष्टि की उत्पत्ति का यह वर्णन अत्यन्त सुख प्रदान करने वाला है ।
अध्याय समाप्त
अध्याय 12 ब्रह्मा को शिव शक्ति रूप का दर्शन
Shiv Puraan
ब्रह्माजी ने कहा - " हे नारद ! अब में तुम से उस सृष्टि का वर्णन करता हूँ , जो समागम से उत्पन्न होती है । यद्यपि मैंने अनेकों प्रयत्न किये , परन्तु मुझे दृढ़ शक्ति की प्राप्ति नहीं हुई । यह देख कर मैंने अपनी संपूर्ण इन्द्रियों को वश में करके भगवान् सदाशिव की पुनः पूजा की क्यों कि उनकी प्रसन्नता के बिना कोई भी कार्य पूरा नहीं होता है । शिवजी ने इस पूजा से प्रसन्न होकर पुनः दर्शन दिया । उस समय उनका शरीर अर्धांगिनी था अर्थात उनके दाहिने ओर आधे भाग में तो सदा शिव का पुरुष शरीर था और बाई ओर आधे भाग में महारानी जगदम्बा का स्त्री रूप था । आधे मस्तक पर जटाएँ थीं और आधे पर घुघराले सुन्दर केश थे । एक ओर ललाट पर त्रिपुण्ड लगा हुआ था और दूसरी ओर बिंदीचमक रही थी । एक ओर डमरू की ध्वनि थी और दूसरी ओर धुंघरू का मधुर - स्वर ।।
ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद ! भगवान् सदाशिव के इस अर्धांगिनी स्वरूप को देखकर में अत्यन्त प्रसन्न हुआ और मैंने उन्हें दण्डवत् करते हुए प्रार्थना की हे प्रभो ! मेरे धन्य भाग हैं , जो आप ने कृपा कर मुझे अपने दर्शन दिये । मेरी स्तुति को सुनकर भगवान् सदाशिव हंसते हुए बोले - हे ब्रह्मन् तुमने जिस मनोरथ की प्राप्ति के लिए इतना कष्ट भोगा है , उसे हम जानते हैं । तुम्हारी अभिलाषा अधिक सन्तान उत्पन्न करने की है । इतना कह कर भगवान् सदाशिव शक्ति से अलग हो गये । उस समय मैंने शक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए कहा - हे महारानी ! मैंने आपकी आज्ञा से सृष्टि उत्पन्न करने की चेष्टा की परन्तु वह अधिक नहीं बढ़ी । हे अंबे ! अब मैं कामदेव के आश्रय से सृष्टि उत्पन्न करना चाहता हूँ और आप से यह वरदान माँगता हूँ कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो । हे जगदंवे ! आप दक्ष की पुत्री के रूप में अवतार ग्रहण करें । " मेरे मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर भगवती महा मायाने पहिले तो भगवान सदाशिव की ओर देखा , फिर मुझ से यह कहा - " हे ब्रह्मन् ! मैं तुम्हारी पौत्री के रूप में जन्म लूगी और मेरा नाम सती होगा । जिस समय राजा - दक्ष भगवान सदाशिव का अपमान करेगा , उस समय में अन्तर्धान हो जाऊँगी । इतना कह कर वे शक्तिस्वरूपा जगदंवा पुनः श्री सदाशिव के शरीर से संयुक्त हो गयीं । तब भगवान भूतभावन भी अन्तर्धान हो गये ।।
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