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Monday, June 2.

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  • शिवपुराण शिवपुराण की कहानी

    शिवपुराण शिवपुराण की कहानी

    भगवान सदाशिव द्वारा विष्णु एवं ब्रह्मा की उत्पत्ति का वर्णन पांचवा अध्याय ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा शिवलिंग के आदि-अंत की खोज छठा अध्याय शिव पुराण की कथा शिवपुराण की कहानी संपूर्ण खंड में पढ़े और भगवान् शिव भोलेनाथ महादेव की महिमा को जानें ब्रह्माजी के पिता कौन हैं  हिंदी कहानियां धार्मिक कहानियों का संग्रह...

    शिवपुराण शिवपुराण की कहानी

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    भगवान सदाशिव द्वारा विष्णु एवं ब्रह्मा की उत्पत्ति का वर्णन पांचवा अध्याय

    • भगवान सदाशिव ने कहा - ' हे प्रिये ! हमें एक ऐसा मनुष्य उत्पन्न करना चाहिए , जो सब विद्याओं में पारंगत हो और जिसके ऊपर हम सम्पूर्ण सांसारि कभार को छोड़कर , आनन्द पूर्वक विहार कर सकें । भगवान त्रिशूलपाणि के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर भगवती जगदम्बाजी ने अपने बॉई । ओर देखा तो उनकी इच्छा से तुरन्त ही एक मनुष्य की उत्पत्ति हुई । वह मनुष्य अत्यन्त स्वरुपवान् , कलावान , बुद्धिमान , तथा शीलवान था । उसका सम्पूर्ण शरीर श्यामवर्ण चन्द्रमा जैसा था । वह अपने भाल पर त्रिपुण्ड धारण किये । हए था । वह पीतवस्त्र धारण किये हुए था । उसका प्रत्येक अंग सुडौल एवं परम सुन्दर था । वह सम्पूर्ण विद्याओं का निधान , महाप्रतापी , सिद्धरूप तथा पवित्र था । वह उत्पन्न होते ही बारम्बार दंडवत् करता हुआ भगवान् सदाशिव एवं भग वती उमा के सम्मुख आ , हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । उस सुन्दर मनुष्य को देखकर उमा सहित उमापति शिवजी अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए । वह भी इन दोनों को देखकर बहुत हर्पित हुआ । तदुपरान्त उसने हाथ जोड़कर इन । दोनों की स्तुति तथा प्रशंसा करते हुये प्रार्थना की " हे . पिता एवं हे मातेश्वरी ! आप मेरा नाम रखकर , मेरे योग्य जो कार्य हो - उसे बताइए । " यह सुनकर श्रीशिवजी बोले " तम्हारा नाम विष्णु होगा । सम्पूर्ण सृष्टि में तुम्हारे समान तेजस्वी तथा प्रतापी अन्य कोई भी प्राणी प्रकट न होगा । तुम्हारा यश सम्पूर्ण संसार में निरन्तर फैला रहेगा । संसारी मनुष्य तुम्हें हरि , चतुर्भुज , भगवान् ,अच्युत आदि अनेक नाम से पुकारेंगे । तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए उत्पन्न किये गये हो । अब तम्हें यह उचित है कि तम तपस्या करो , जिससे तम्हें । अधिक तेज एवं सामर्थ्य की प्राप्ति हो । इतना कहकर भगवान सदाशिव ने विष्णु को योगविद्या का उपदेश किया । तब विष्णु एक स्थान पर बैठकर तपस्या करने में संलग्न हो गये ।
    • हे नारद ! वेद्वादश दिव्य सहस्त्र वर्षपर्यन्त एक ही आसन पर बैठे हए योग साधन द्वारा भगवान् सदाशिव का ध्यान करते रहे , परन्तु जब उन्हें तपस्या का कुछ भी फल प्राप्त नहीं हुआ तो उनके हृदय में अत्यन्त शोक हुआ । उसी समय , जिस प्रकार वर्षा में बादल गरजते हैं , ठीक उसी प्रकार यह आकाश वाणी हुई " हे विष्णु ! तुम मन लगाकर फिर से तप करो ; क्योंकि हम सुग मता से किसी को दिखाई नहीं देते हैं । इस आकाशवाणी को सुनकर उन्होंने पुनः अत्यन्त कठिन तप करना आरंभ कर दिया । उस कठिन तपस्या के कारण विष्णु के पवित्र शरीर से इतना पसीना निकला कि उससे एक नदी वह चली । उस अवस्था में बैठे हुए विष्णु जब मूच्छित  हो गये , तब उनका नाम तीनों लोकों में ' हरनारायण ' प्रसिद्ध हुआ । वे इस प्रकार मूच्छित हो गये कि जैसे कोई निद्रा में शयन कर रहा हो । उसी दशा में भगवान् सदाशिव की इच्छा से उन विष्णु की नाभि से एक कमल की उत्पत्ति हुई । उस कमल में बहुत सी पंखुड़ियाँ थीं । वह देखने में बहुत ऊँचा , अत्यन्त मनोहर तथा लम्बा था ।
    • ब्रह्माजी बोले - “ हे नारद ! विष्णु को उत्पन्न करने के पश्चात् भगवान सदाशिव ने मुझे अपनी दाहिनी भुजा से उत्पन्न किया और उसी कमल में बैठा दिया । मेरा रंग लाल था । मेरे चार मस्तक थे , जो चारों दिशाओं की ओर खुल रहे थे । मेरे अन्य सभी अंग विष्णु के समान ही थे । मैं भी अत्यन्त सामर्थ्य वान् एवं तेजस्वी था । उसी समय मैंने यह आकाशवाणी सुनी - हे पुत्र ! तुम्हारे अज , ब्रह्मा , धाता , विधाता , प्रजेश , परमेष्ठी , बहुगर्भ आदि अनेकनाम होंगे । " परन्त मैं उस समय यह नहीं जान सका कि मुझे उत्पन्न करनेवाला कौन है ? हे नारद ! भगवान् सदाशिव की माया तीनों भुवनों को घेरे हुये है । वे जो चाहते हैं , वहीं होता है । अस्तु , जब मैं यह नहीं जान सका कि मैं किस के द्वारा उत्पन्न हआ हूँ और किस का पुत्र हूँ तथा उस कमल के पुष्प की जड़ कहाँ है ? तब मैंने अपने मन में यह विचार किया किजिसके मूल से यह कमल का पुष्प उत्पन्न हुआ है , वही मेरा पिता होगा । ऐसा निश्चय करके उस कमल की जड़ को जन्म देने वाले अपने पिता का पता लगाने के लिए मैं उस कमल की डण्डी के मार्ग से , उस जल के भीतर जा पहुँचा , जिसमें होकर वह कमलनाल ऊपर को निकली हुई थी । यद्यपि मैं उस कमलनाल के सहारे सैकड़ों कोसों तक पानी के भीतर चला गया , परन्तु मुझे उसके उद्गमस्थान का कोई भी पता नहीं चल सका । तब मैं निरन्तर सौ वर्षों तक प्रयत्न करने के बाद निराश हो जाने के शोक से व्याकुल होकर उसी स्थान पर पुनः लौट आया , जहाँ से नीचे की ओर गया था । जब मैं पुनः ऊपर लौट कर आया तो यह देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही कि वहाँ वह कमलपुष्प कहीं भी दिखाई नहीं देता था - जिस पर मैं पहले बैठा हुआथा । इस अद्भुत दृश्य को देखकर मुझे अत्यन्त चिन्ता हुई । तब मैंने इस सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की ।
    शिवपुराण शिवपुराण की कहानी

    • हे नारद ! उस समय मुझे चिन्तायुक्त देखकर आकाशवाणी हुई , जिसके द्वारा दो अक्षर प्रकट हुए । उन अक्षरों के सहारे सोलह तथा इक्कीस अक्षरों का और ज्ञान हआ । जिनसे मैं बहत सी बातों को जान सका । ठीक उसी समय भगवान सदाशिव की इच्छा से उस जल में अचेत होकर पड़े हुए विष्णु सचेत होकर मेरे समीप आये । वे रत्नजटित किरीट आदि को धारण किये हुये थे । उनके शरीर का रंग मेघ के समान श्यामल था । उनके उस मनोहारी प्रकाश वान स्वरूप को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया ।
    • इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा - “ हे नारद ! इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए , क्योंकि भगवान सदाशिव जो चाहते हैं वही होता है । अस्तु , मैंने विष्णु के उस स्वरूप को देखकर पूछा - आप कौन हैं ? ” विष्णु ने उत्तर दिया - हेब्रह्मन् ! हम ब्रह्म , अलख , निरंजन , हरि , भूपति , निर्विकार अचिन्त्य तथा सतचित् आनन्दस्वरूप हैं । हम तम्हारे पिता हैं और हमारे ही नाभि - कमल द्वारा तुम्हारी उत्पत्ति हुई है । अब तुम निर्भय हो जाओ , क्योंकि हम तुम्हारे रक्षक हैं । हमारे ऊपर , हमारेसमान अथवा हम से उत्तम अन्य कोई नहीं है । हमी सब के स्वामी हैं । हे नारद ! विष्णुजी ने यह बात अज्ञानावस्था में ही कही थी कि हमी उत्तम हैं और हमी ब्रह्म हैं , क्योंकि वे उस समय शिवजी की माया से अचेत थे । भला इस संसार में ऐसा कौन है , जिसे भगवान सदाशिव की माया भुलावे में नहीं डाल देती ?
    • हे नारद ! विष्णु के मुख से यह वचन सुनकर मुझे अत्यन्त क्रोध आया । तब मैंने उनसे कहा - हे विष्णु ! तुम ऐसी असत्य बात मत कहो और कैवल्य भाव का निश्चय रक्खो । यदि तुम हमें उत्पन्न करनेवाले होते तो वेद हमें ब्रह्मा पितामह , विधाता , परमेष्ठी आदि नामों से नहीं पुकारते । हम स्वयं ही तीनों गुणों को धारण करके सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाले हैं । अतः तुम्हें हमारे प्रति ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिए । ” मेरी बात सुनकर विष्णु बोले - हे ब्रह्मा ! तुम्हें ऐसे अज्ञान में पड़ना उचित नहीं है । इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाले तुम नहीं हो , बल्कि हमी हैं । हमी सब जीवों को उत्पन्न करके उनका पालन करते हैं । और प्रलय काल में सबको नष्ट कर देते हैं । हमारे हरि , ईश , अच्युत आदि सर्वो त्तम नाम हैं । हमारी माया के वशीभूत होकर सब लोग अपना ज्ञान भुला बैठते हैं , इसीलिए तुम भी ऐसा कह रहे हो । इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है । यह सम्पूर्ण संसार हमारे द्वारा ही उत्पन्न हुआ है और हमारे ही आधीन बना रहता है । हमी ने वेदों को बनाया है और तुम्हें नाभि - कमल द्वारा उत्पन्न किया है । हमसे अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है । तुम अपने नामों पर अहंकार मत करो तथा क्रोध को त्याग कर जो वचन कहने योग्य तथा उचित हैं , उन्हीं का प्रयोग करो । जिस प्रकार अन्धा मनुष्य आँखों की महिमा का . निर्धन मनुष्य धनवान की अवस्था का वर्णन करें , उसी प्रकार वेद ने भी तुम्हारे नामों का वर्णन किया है । यदि तुम हमारा पूजन कराग तो वह शुभ होगा , अन्यथा हम तुम्हें अपनी द्वारा नष्ट कर देंगे ।
    • हे नारद ! विष्णु के ऐसे अहंकार पूर्ण शब्द सुनकर पहिले तो मुझे बहत हँसी आई , फिर हृदय में इतना क्रोध उत्पन्न हुआ कि मैं उनका शत्रु बन गया । और उनसे इस प्रकार कहने लगा - हे विष्णु ! जिस प्रकार गुरु अपने शिष्य को झिड़ककर बुलाता है , उसी प्रकार तुम हमें उपदेश क्यों दे रहे हो ? ” “ हे नारद ! परस्पर इस प्रकार कहते हुए हम तथा विष्णु आपस में युद्ध करने लगे । शिवजी की मायासे मोहित होकर हम दोनों ने बहुत समय तक खूब युद्ध किया , क्योंकि हम दोनों ही अपने को सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी समझते थे ।

    छठा अध्याय

    ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा शिवलिंग के आदि-अंत की खोज

    छठा अध्याय ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा शिवलिंग के आदि-अंत की खोज

    • हे नारद ! हमें तथा विष्णु को परस्पर लड़ते हुए देखकर , प्रलयकालीन प्रज्ज्वलित बड़वाग्नि के समान शिवजी अचानक ही उस स्थान पर प्रगट हो गये । मैं उनकी छपमा किससे दूँ ? उनके उस परम तेजस्वी स्वरूप को देख कर हम दोनों ने परस्पर युद्ध करना बन्द कर दिया । उस समय विष्णु अत्यन्त भय भीत तथा आश्चर्य चकित होकर मझसे यह कहने लगे हे ब्रह्मन् ! यह निस्सीम । तेज यहाँ कहाँ से आ पहँचा ? अब हम दोनों को उचित है कि हम इस तेज के । आदि और अन्त को देख आवें । हम दोनों में से जो भी इसके आदि और अन्त को देख लेगा , उसीको सबसे बड़ा और सबका स्वामी स्वीकार कर लिया जायगा । हमें तो यह तेज आदि और अन्त से रहित जान पड़ता है । अच्छा , तुम इस तेज । के ऊपर की ओर जाओ और हम नीचे की ओर जाते हैं ।
    • हे नारद ! विष्णु की यह बात मैंने स्वीकार कर ली । तब हम दोनों अहं कारी उस तेज के आदि और अन्त को देखने के लिए एक दसरे से भिन्न दिशाओं में चल दिये । हे पुत्र ! जो कार्य अहंकार की अवस्था में किया जाता है , वह कभी पूर्ण नहीं होता और उसका फल भी अच्छा नहीं मिलता । जब तक मनुष्य अहं कार को नहीं त्याग देता , तब तक उनका कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । हमारे और विष्णु के इस चरित्र को जो मनुष्य प्रातःकाल हाथ - पाँव धोकर ध्यान में लाता है , . उसे इस लोक में सुख , आरोग्य तथा परलोक में श्रेष्ठ गति की प्राप्ति होती है ।
    • हे नारद ! हम और विष्णु एक दिव्य सहस्र वर्ष पर्यन्त उस दिव्यज्योति के आदि और अन्त को ढूँढ़ते रहे , परन्तु हम दोनों में से किसी को भी उसका कुछ पता न चला । अस्तु , हम निराश होकर अपने स्थान को लौट पड़े ; परन्तु तभी एक आश्चर्य की बात हुई कि जिस स्थान से हम चले थे , वह हमें बहुत ढूँढ़ने पर भी कहीं दिखाई नहीं दिया । अतः हमें एक सहस्र दिव्य वर्षों का समय अपने पहिले स्थान को ढूँढ़ने में लग गया । उस समय हमें इस बात का भली प्रकार ज्ञान हो गया कि हमारे ऊपर भी कोई बड़ी शक्ति है जो सबसे उत्तम और पुरातन है । यह बात ध्यान में आते ही हम दोनों उस पवित्र , निर्विकारस्वरूप की शरण में गये और परस्पर शत्रुता को त्यागकर , भक्तिभाव से उस परमस्वामी की स्तुति करने लगे । हम दोनों की उस प्रार्थना को सुनकर यह , आकाशवाणी हुई “ हे ब्रह्मा तथा हे विष्णु ! तुम दोनों योग साधन करो ।
    • हे नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर हम दोनों ने योगाभ्यास करते । हुए उस अलक्षित स्वामी की स्तुति में इस प्रकार कहना आरंभ किया - " हे । स्वामी ! हम दोनों ने आपकी माया के वशीभूत होकर अपने को सृष्टि का उत्पन्न ।  कर्ता समझ लिया था । अब हम अपने अभिमान को त्यागकर आपको दण्डवत् । करते हैं । आप हमें अपना सेवक जानकर कृपा कीजिए और प्रकट होकर हमें अपना दर्शन दीजिए । जिस समय हम लोग इस प्रकार स्तुति कर रहे थे , उसी समय हम दोनों को गूढ़ शब्दों में किसी ने कुछ प्रेरणा दी ; परन्तु हम उसके तात्पर्य को नहीं समझ पाये । अब हमने दंडवत् करते हुए पुनः यह प्रार्थना की कि हे । प्रभो । हमारे सम्मुख साकार रूप में प्रकट होकर आप दर्शन दें ; क्योंकि आपकी गूढ़ प्रेरणा को समझने में हम दोनों ही असमर्थ हैं । हमारे इस प्रकार कहते ही भगवान् सदाशिव ने साक्षात् प्रकट होकर हमें अपना वह स्वरूप दिखाया , जिसके दर्शन पाकर सम्पूर्ण संसार मोहित हो जाता है । तदुपरान्त प्रणव अर्थात् ॐकार प्रकट हुआ । भगवान् सदाशिव की माया जानने में असमर्थ होने के कारण हम उसे भी समझने में असमर्थ रहे । कुछ देर पश्चात् जब उस प्रणव के चार भाग हुए और उसके भीतर से सगुणरूप भगवान त्रिशूलपाणि प्रकट हुए , उस समय हमने यह समझा कि इस प्रणव के जो अकार , उकार तथा मकार अक्षर हैं , उसके नाद तथा विन्दु का यह अर्थ है कि पहिला अक्षर अर्थात् अकार लिंग की ज्योति है ; दूसरा अक्षर उकार उस ज्योति का मध्य है ; जो आधी मात्रा नाद स्वरूप है , वह उस लिंगज्योति का मस्तक है और जो विन्दु है , वह सम्पूर्ण लिंग का ज्योति स्वरूप है । उसका वर्णन अन्य प्रकार से इस प्रकार किया जा सकता है कि अकार से ऋगवेद , उकार से यजुवेंद , मकार से सामवेद , नाद से अथर्ववेद तथा विन्दु से ब्रह्मविद्या का स्वरूप बना है ।
    • वह इस सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वोत्तम है । उसी को ' वृषातन ' कहा जाता है । उसी प्रणव में तीनों लोकों की स्थिति है । वह कभी नष्ट नहीं होता । ब्रह्म से लेकर तृण पर्यन्त सभी जीव तथा वस्तुएँ उसमें स्थित रहती है । ढूँढ़ने पर भी प्रणव के लिंग को प्राप्त नहीं किया जा सकता । चारो वेद तथा अठारहो पुराण भी उसके भीतर विद्यमान हैं ।
    • हे नारद ! वेद भगवान् सदाशिव को प्रणवरूप कहते हैं । वे शिवजी अपने दाहिने अंग अकार द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं एवं बाँये अंग उकार द्वारा उसका पालन करते हैं । प्रणवरूप शिव के हृदय में जो मकार है , उससे प्रलय का प्रादुर्भाव होता है । वर्णमाला के सम्पूर्ण अक्षरों से भगवान सदाशिव का शरीर अलंकृत है । इन अक्षरों से अलंकृत श्रीशिवजी का जो शरीर है , उसका स्मरण करने से अत्यन्त प्रसन्नता की प्राप्ति होती है । मैंने और विष्णु ने सदाशिव का जब यह प्रणवरूप देखा तो अत्यन्त प्रसन्न होकर हाथ जोड़ उन्हें दंडवत की तथा हम दोनों ही उनकी बहुत प्रकार से स्तुति करने लगे ।
    अध्याय समाप्त 




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